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अपे॑त॒ वी᳖त॒ वि च॑ सर्प॒तातो॒ येऽत्र॒स्थ पु॑रा॒णा ये च॒ नूत॑नाः। अदा॑द्य॒मो᳖ऽव॒सानं॑ पृथि॒व्याऽअक्र॑न्नि॒मं पि॒तरो॑ लो॒कम॑स्मै ॥४५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अप॑। इ॒त॒। वि। इ॒त॒। वि। च॒। स॒र्प॒त॒। अतः॑। ये। अत्र॑। स्थ। पु॒रा॒णाः। ये। च॒। नूत॑नाः। अदा॑त्। य॒मः। अ॒व॒सान॒मित्य॑व॒ऽसान॑म्। पृ॒थि॒व्याः। अक्र॑न्। इ॒मम्। पि॒तरः॑। लो॒कम्। अ॒स्मै॒ ॥४५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:45


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

सन्तान और पिता-माता परस्पर किन-किन कर्मों का आचरण करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् लोगो ! जो (ये) जो (अत्र) इस समय (पृथिव्याः) भूमि के बीच वर्त्तमान (पुराणाः) प्रथम विद्या पढ़ चुके (च) और (ये) जो (नूतनाः) वर्त्तमान समय में विद्याभ्यास करने हारे (पितरः) पिता=पढ़ाने, उपदेश करने और परीक्षा करनेवाले (स्थ) होवें, वे (अस्मै) इस सत्यसंकल्पी मनुष्य के लिये (इमम्) इस (लोकम्) वैदिक ज्ञान सिद्ध लोक को (अक्रन्) सिद्ध करें। जिन तुम लोगों को (यमः) प्राप्त हुआ परीक्षक पुरुष (अवसानम्) अवकाश वा अधिकार को (अदात्) देवे, वे तुम लोग (अतः) इस अधर्म से (अपेत) पृथक् रहो और धर्म्म को (वीत) विशेष कर प्राप्त होओ (अत्र) और इसी में (विसर्पत) विशेषता से गमन करो ॥४५ ॥
भावार्थभाषाः - माता-पिता और आचार्य्य का यही परम धर्म है−जो सन्तानों के लिये विद्या और अच्छी शिक्षा को प्राप्त कराना। जो अधर्म से पृथक् और धर्म्म से युक्त परोपकार में प्रीति रखनेवाले वृद्ध और जवान विद्वान् लोग हैं, वे निरन्तर सत्य उपदेश से अविद्या का निवारण और विद्या की प्रवृत्ति करके कृतकृत्य होवें ॥४५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ जन्यजनकाः किं किं कर्माचरेयुरित्याह ॥

अन्वय:

(अप) (इत) त्यजत (वि) (इत) विविधतया प्राप्नुत (वि) (च) (सर्पत) गच्छत (अतः) कारणात् (ये) (अत्र) अस्मिन् समये (स्थ) भवथ (पुराणाः) प्रागधीतविद्याः (ये) (च) (नूतनाः) संप्रतिगृहीतविद्याः (अदात्) दद्यात् (यमः) उपरतः परीक्षकः (अवसानम्) अवकाशमधिकारं वा (पृथिव्याः) भूमेर्मध्ये वर्त्तमानाः (अक्रन्) कुर्वन्तु (इमम्) प्रत्यक्षम् (पितरः) जनका अध्यापका उपदेशकाः परीक्षका वा (लोकम्) आर्षं दर्शनम् (अस्मै) सत्यसंकल्पाय। [अयं मन्त्रः शत०७.१.१.१ व्याख्यातः] ॥४५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वांसः येऽत्र पृथिव्या मध्ये पुराणा ये च नूतनाः पितरः स्थ, तेऽस्मै इमं लोकमक्रन्। यान् युष्मान् यमोऽवसानमदात्, ते यूयमतोऽधर्मादपेत धर्म्मं वीतात्रैव च विसर्पत ॥४५ ॥
भावार्थभाषाः - अयमेव मातापित्राचार्याणां परमो धर्मोऽस्ति यत्सन्तानेभ्यो विद्यासुशिक्षाप्राप्तिकारणं येऽधर्मान्मुक्ता धर्मेण युक्ताः परोपकारप्रिया वृद्धा युवानश्च विद्वांसः सन्ति, ते सततं सत्योपदेशेनाविद्यां निवर्त्य विद्यां जनयित्वा कृतकृत्या भवन्तु ॥४५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माता-पिता व आचार्य यांचा खरा धर्म हाच आहे, की संतानांना विद्या व चांगले शिक्षण द्यावे. अधर्मापासून दूर असणाऱ्या व परोपकाराची आवड असणाऱ्या तरुण व वृद्ध विद्वान लोकांनी सदैव सत्याचा उपदेश करावा व अविद्या नष्ट करून विद्या प्राप्त करण्याकडे कल ठेवावा आणि कृतकृत्य व्हावे.